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एक बेजुबाँ का दर्द वक़्त गर साथ देता ,किस्मत मे

एक बेजुबाँ का दर्द 
वक़्त गर  साथ  देता ,किस्मत  मेरी  भी बुलंद होती,
ख्वाहिशें सर उठाकर जीती, हालत न मेरी तंग होती,

ना   डराते अँधेरे मुझे ,  यूँ रोज    आकर   रातों को,
चाँद दामन  में होता , और   रोशनी  मेरे   संग होती,

ज़िन्दगी   होती    मिरी , कुछ   यूँ  चराग़ों   से रोशन,
मेरी नज़रों की चमक  देखकर ,चाँदनी भी दंग होती,

जीने के  लिए जिल्लत-ओ-अपमान का, 
ज़हर ना पीना पड़ता,
मिलती मेरे हिस्से की ख़ुशी ,ये ज़िन्दगी मस्त मलंग होती,

ना खाता मार इंसानों की ,इस पापी पेट की ख़ातिर,
होती जो लकीर किस्मत की, ना किस्मत से मेरी जंग होती ,

जो बता सकता दर्द अपना मैं ज़ुबा से, इन हुक्मरानों को ,
ना होती मौत से जद्दोजहद ,ना साँसे मेरी भंग होती ।।

-पूनम आत्रेय

©poonam atrey
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