आज फिर मैं गया था उसी झील के किनारे
जहाँ बैठ कर तुम डूबते सूरज को देखती थी
और मैं डूबा रहता था तुम्हारी झील सी आँखों में
उन आँखों के कौतूहल में तैरती सूरज की लाली
मदहोश सी कर देती थी मुझे
गंवारा नहीं था तुम्हारा पलकें झपकना भी
के वो खलल डालती थी बेवजह
जब डूब चुका होता था सूरज