लोरी तैयार ही रहता था मैं तो जब रात ढलने को आती थी, सैर मैं करता था जन्नत की मेरी माँ जब लोरी सुनाती थी। सूरज, चाँद, तारों के देश में जाता था मैं अक्सर नींद में मुस्कुराता था जो कभी नहीं हो सकता था मैं ऐसे ख्वाब सजाता था, मिलती थीं वहाँ परियां जो बड़े सुन्दर गीत वो गाती थीं सैर मैं करता था जन्नत की मेरी माँ जब लोरी सुनाती थी। किसी राजकुमार से मैं कम न था उस उम्र में मुझे कोई गम न था मुझको कोई डरा सके इतना किसी में दम न था, बस थकान होती थी खेलकूद की उसकी गोद में वो उतर जाती थी सैर मैं करता था जन्नत की मेरी माँ जब लोरी सुनाती थी। बातों-बातों में सपनों की दुनिया में मैं खो जाता था सर रख माँ की गोद में मैं चुपचाप यूँ ही सो जाता था, प्यार से सिर पर मेरे वो हाथों से सहलाती थी सैर मैं करता था जन्नत की मेरी माँ जब लोरी सुनाती थी। यूँ लगता है बीते ज़माने कई न किस्से रहे न वो कहानियां रहीं लापता सी हो गयी हैं अब बचपन की वो नादानियाँ न रहीं, इस भाग दौड़ में भूल गए हम माँ बातें जो हमें बताती थी सैर मैं करता था जन्नत की मेरी माँ जब लोरी सुनाती थी। निंदिया आना री आना…चुप्पके से…हो चुप्पके से…. सपने सुहाने तू ले के आना…चुप्पके से…हो चुप्पके से… निंदिया आना री आना… चुप्पके से…हो चुप्पके से… मोहिनी मूरत है सांवली सूरत …