इस शहर को यारों नजर लगी है किसकी चारों तरफ ख़ामोशी और दबी सी है सिसकी दूर तक ना कोई नजर आता है मन को डरता है सन्नाटा। शोर जिंदगी का थमा हुआ सा पहिया गाड़ियों का रुका हुआ है एक वायरस से दुनिया डरी हुई बंद मकानों में दुबकी हुई। सुनसान गलियां बाजार वीरान हैं हर तरफ खौफ है आफत में जान है पर इस सब में एक तस्वीर जो विचलित करती पत्थर हो गए दिल को भी द्रवित करती है। वह है उस मजदूर वर्ग की जो मजबूर है छोड़ने को अपना शहर जिसकी इमारतें ख़ड़ी करने में बहा है उसका पसीना जिसके उद्योग को चलाने आग में तपा है उसका सीना। आज भी उस शहर में उस के सर पर छत नहीं जिन्दा रहने के लिए भोजन नहीं। आज मदद का हर द्वार बंद हो गया और अपना था जो कभी शहर वो अजनबी हो गया है। जीवन के बोझ की गठरी सर पर उठाये नंगे पैरो पैदल ही चल पड़ा है जीवन बचाने बेबस लाचार चेहरे पर थकान और दिल में दर्द लिए चला है अपनी मंजिल की तरफ चला है फिर से उस गांव की ओर जिसको रोजी रोटी के लिए थे पीछे छोड़ आये।। " इस शहर को यारों नजर लगी है किसकी "