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जामने को देखकर चलने वालों, जरा पीछे भी झांक कर चल

जामने को देखकर चलने वालों, 
जरा पीछे भी झांक कर चला करो
क्या खोया, क्या पाया है हमने 
हिसाब साथ रखकर चला करो
पाया जरूर होगा रुतबा हमने,कोठी
करोड़ो की बना ली होगी, मगर वो
झोपड़ी की रौनक, वो चौपाल , गाय
बछड़ो, की आवाज वो गिलहरी की
 नटखटखियों का अंदाज खो दिया
सुखी जरूर होंगें बीबी, बच्चों के साथ
मगर माता, पिता, दादा, दादी का लाड़
खो, दिया, मिल गये होंगे सभ्य समाज
के लोग, यार दोस्त, मगर वो साधारण
लोग, वो सच्चे दोस्त वो आपसी व्यहार
खो दिया, जमानें को देखकर चलने वालों
जरा पीछे भी, झांक कर चला करो
मिल गया होगा आधुनिकता का लिबास,हमें
उठने बैठने का नया ढंग हमें, मगर वो वर्षो पुराना
संस्कार, वो लिबास वो भाई चारा  तो कहीं
पीछे छूट गया, मिल गयी है, अब नई शिक्षा
मिल गया है नया संस्कार
जिसमें, गुरुजन, मात- पिता, बड़े बूढों का
आदर करना शायद भूल गया,
 "मेरे दोस्तो हम आधुनिक
भारत में, पुरानी संस्कृति के आधार स्तंभ
को भूल गए.हम अपनी बिरासत के सवर्ण
इतिहास के सुनहरे पन्नो  को पढ़ना शायद भूल गये, "

©पथिक
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