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यह अल्फ़ाज़ भी न रोज़ रोज़ आ जाते है हम को योंही मदहोश

यह अल्फ़ाज़ भी न रोज़ रोज़ आ जाते है
हम को योंही मदहोश कर जाते है
कितना भी सम्भलता हु कि आज नही
नज़्म बनने तक बहकाते है
और मुकम्मल होती है जैसे ही नज़्म
मुझे महका जाते है
यह अल्फ़ाज़ भी न रोज़ रोज़ आ जाते है
हम को योंही मदहोश कर जाते है
कुँवर सुरेन्द्र यह अल्फ़ाज़ भी न रोज़ रोज़ आ जाते है
हम को योंही मदहोश कर जाते है
कितना भी सम्भलता हु कि आज नही
नज़्म बनने तक बहकाते है
और मुकम्मल होती है जैसे ही नज़्म
मुझे महका जाते है
यह अल्फ़ाज़ भी न रोज़ रोज़ आ जाते है
हम को योंही मदहोश कर जाते है
यह अल्फ़ाज़ भी न रोज़ रोज़ आ जाते है
हम को योंही मदहोश कर जाते है
कितना भी सम्भलता हु कि आज नही
नज़्म बनने तक बहकाते है
और मुकम्मल होती है जैसे ही नज़्म
मुझे महका जाते है
यह अल्फ़ाज़ भी न रोज़ रोज़ आ जाते है
हम को योंही मदहोश कर जाते है
कुँवर सुरेन्द्र यह अल्फ़ाज़ भी न रोज़ रोज़ आ जाते है
हम को योंही मदहोश कर जाते है
कितना भी सम्भलता हु कि आज नही
नज़्म बनने तक बहकाते है
और मुकम्मल होती है जैसे ही नज़्म
मुझे महका जाते है
यह अल्फ़ाज़ भी न रोज़ रोज़ आ जाते है
हम को योंही मदहोश कर जाते है