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एक समय था जब आत्महत्या की खबर कम ही सुनने को मिलती

एक समय था जब आत्महत्या की खबर कम ही सुनने को मिलती थी। वर्तमान में आलम यह है कि हर रोज आत्महत्या की 4 या 5 घटनायें देखने सुनने को मिलती हैं। आत्महत्या करने वालों में 15  साल से लेकर 45 साल के लोग शामिल है इनमें  भी औसत निकाला जाये तो 20 से 30 की आयु के युवा शामिल हैं जिससे अनुमान लगाना आसान है कि ये वही लोग हैं जो किसी ना किसी तरह के संबंध से उपजे  मानसिक तनाव के  शिकार होते हैं या करियर में असफलता इन सबके  पीछे एक बड़ा कारण नशे की बढ़ती प्रवृति है और फोन के प्रति बढ़ती निर्भरता ने युवाओं में धैर्य, नींद और विचारशीलता को क्षीण करने का काम किया है। साथ ही लोग क्रोध में बदले की भावना से ग्रसित हो आत्मघाती कदम उठाते हैं,,,, बेशक मृत व्यक्ति के साथ समाज की भावनाएं जुड़ जाती हैं और उदास हो संवेदनाओं से भर जाते हैं। लेकिन इससे समाज में आत्महत्या नामक बीमारी अपने पाँव पसारने लगती है।

कोई भी व्यक्ति अपनी ही जान लेने से पहले यह क्यों नहीं सोचता कि जन्म लेना उसके बस में नहीं तो मौत को कंठहार बनाने का अधिकार कैसे  ?  जीवन की कठिनाई को स्वीकार करने से परहेज क्यों? जब बर्दास्त से बाहर है तो मानसिक तनाव का उपचार लेने से शर्म क्यों?

ऐसा क्या डर है जिसे व्यक्ति अपने अंदर भरता रहता है मगर अपने किसी करीबी से कहने से गुरेज करता है।  आत्महत्या का ख्याल करने वालों को सबसे पहले ये सोचना समझना होगा कि आपकी मौत पूरे परिवार को मानसिक रूप से मारने का काम करती है और अनसुलझे सवाल जिनसे वो ताउम्र जूझते रहते हैं और स्वयं को दोषी मानते हुये बस जिम्मेदारी का बोझ ढोते रहते हैं,,,जिस बोझ को आपने उठाने से इंकार कर दिया ।

©करिश्मा ताब
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