सुनो! माँ तुमने मेरे जीवन को पोषित किया है। मेरे लिए स्वप्निल सृष्टि है ऐसा घोषित किया है। फ़िक्र करती रहेगी ताउम्र तू मेरी सबसे ज़्यादा! मेरी रगों ने तेरा ही लहू तो अवशोषित किया है। तेरा ऋण कभी चुकता नहीं कर सकता कोई! तेरा दिया कभी भुगता नहीं भर सकता कोई। भ्रम में डाल दिया है सबको ऐसी ही बातों ने! ऋणानुबंध पूरे करने को ही तो जन्म लिया है। जीवन का क्रम थमता नहीं अनवरत चलता है। सूरज ढलता है तब जाकर चंद्रमा निकलता है। शुक्लपक्ष तो कभी कृष्णपक्ष की घटनायें हुईं! कभी तो दोनों को वक़्त का पहिया छलता है । जीवन प्रदाता पिता और उसे पोषण देने वाली माँ सृष्टि रथ के दो पहिए हैं। वे हम सभी के प्रथम गुरु हैं। हमारे लिए राह बनाते हैं, जिसपे चलकर हम अपना गन्तव्य पाते हैं।