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जब रात हुई, मैं घर जाती हूँ कितना भी समेटू खुद को

जब रात हुई, मैं घर जाती हूँ 
कितना भी समेटू खुद को बिखर जाती हूँ..!

मैं रोकती हूँ, कई बार खुदको वादा करने से 
कितना भी रोकूं मगर कर जाती हूँ..! 

वैसे घर से कोई खास लगाव नहीं है 
पर मुझे घर ढूंढ़ता हूँ, मैं जिधर जाती हूँ..!

 घर पर होती हूँ तों दादी सम्हाल लेती है 
ऐसे तों अपनी हीं परछाई से डर जाती हूँ..!

जब रात हुई, मैं घर जाती हूँ 
कितना भी समेटू पर बिखर जाती हूँ..!

©shiva jha... #मेरीकहानी#शिवानीझा Vivek Dixit swatantra Puja Udeshi Jonee Saini BIKASH SINGH Lalit shrivastava sabdvanshi