वह मुझसे अब ख़फ़ा हो गया है उसका लफ़्ज़ बद्दुआ हो गया है! काम करना बहुत मुश्किल हो गया है मेरा हाथ मुझसे ज़ुदा हो गया है! पानी को कौन नीचे खींच रहा है पानी में गहरा कुआ हो गया है! इस शख्स का बचना अब मुश्क़िल है जख़्म बहुत ही गहरा हो गया है ! पैसा पास हो तो ख़रीद लो क़ानून पैसा क़ानून से भी बड़ा हो गया है ! 🍵🍹☕मेरी डायरी के एक पृष्ठ पे मिली ये ग़ज़ल पता नहीं किसकी है पर है क़माल की 😊🤓इसे पढ़ते ही #मनुस्मृति की ओर दिमाग़ चला गया 🍉🍉🐿सोचा आपके साथ साझा कर दूँ😀🍫🐒🐒🍹#हरेकृष्ण🍹🍵🍵😊#पाठक😊🤓#पंछी😊🤓🍹🍵 :🤓🍹🍵🐒🍫☕🍧🐦 ’ मनुस्मृति में कहा है- ‘अधर्मेणैधतेतावत्ततो भद्राणि पश्यति। सपत्नाञ्जयते सर्वान् समूलस्तु विनश्यति ॥’ अर्थात्-प्रथमत: मनुष्य अधर्म से बढ़ता है और सब प्रकार की समृद्धि प्राप्त करता है तथा अपने सभी प्रतियोगियों से आगे भी निकल जाता है किन्तु समूल नष्ट हो जाता है। इसका भावार्थ है कि अधर्म के जरिए उत्पन्न अन्न जिसके भी भोग में आएगा, उसका, उसकी सन्तानों का, सम्बन्धियों का सम्पूर्ण (जड़ सहित) नाश निश्चित है। ऐसे अन्न का अर्जन करने वाला यह सुनिश्चित कर जाना चाहता है कि इस अन्न का भोग करने वाला अपराधी, असामाजिक तत्त्व के रूप में भी जाना जाए। कुल को कलंकित भी करे तथा अन्त में समूल नष्ट हो जाए। आज जिस गति से भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है, भ्रष्ट लोगों के परिजन नित्य-प्रतिदिन समाजकंटक के रूप में सामने आते जा रहे हैं। हर युग मे ऐसे प्रमाण सामने आते रहे हैं। पारिवारिक कलह, असाध्य रोग और अकाल मृत्यु के योग बने रहते हैं। आज तो इनके नाम बड़े-बड़े घोटालों में अपयश प्राप्त करते हैं।