ग़ज़ल उसकी तन्हाई के बारे में क्या सोचा है तन्हाई का साथ जिसे इक मेला लगता है हर इक शै का मौसम कुछ कुछ बहका बहका है जबसे इन गलियों से जां का दुश्मन गुजरा है शबनम देख सुबह फूलों पर ऐसा लगता है धरती से मिलने को शब भर चंदा रोता है बहिना माशूका बीवी फिर माँ का चेहरा है एक अकेली होकर भी वो जाने क्या क्या है उन सबके सब लोगों के घर दूर नज़र आये बेहद नज़दीकी से जिनको हमने देखा है @धर्मेन्द्र तिजोरीवाले "आज़ाद"