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विवशता मनुष्य को तड़पाती बहुत है मृग मरीचिका के मा

विवशता मनुष्य को तड़पाती बहुत है
मृग मरीचिका के मानिंद दौड़ाती बहुत है
आत्मिक घाव दिखाया नहीं जा सकता
अश्कों के सागर में गोते लगवाती बहुत है
विवशता मनुष्य को.......
स्थूल शरीर को मरहम लगाया जाता है
सूक्ष्म शरीर व्यक्ति को भटकाती बहुत है
जीवन के रंगमंच का खेल भी अजीब है
ये खट्टा मीठा स्वाद भी चखाती बहुत है
विवशता मनुष्य को.......
सार गर्भित रहस्य तो मकड़ी का जाल है
और अनसुलझी पहेलियां डराती बहुत है
वक्त का झोंका थपकियां देकर चला जाता
"सूर्य" चाहत की चकाचौध जलाती बहुत है
विवशता मनुष्य को.......

©R K Mishra " सूर्य "
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