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@बचपन के ग्रीष्मावकाश उस छांवभरी दोपहरी में,

 @बचपन के ग्रीष्मावकाश

उस  छांवभरी  दोपहरी  में,
हम दिनभर खेला करते थे।
अब सूख गई वह भी डाली,
जिसपर हम झूला करते थे।।

कितना रंगीन ज़माना था,
हर घर से आना जाना था।
यारों  की  सुंदर  टोली थी,
बस खेल में रोल बताना था।
सारे  खेलों  से  थकने  पर,
हम लूडो खेला करते थे।।उस छांव भरी...

दादी  नानी  के  किस्से  थे,
भैया  दीदी  के  हिस्से  थे।
हर ज़िद की चीजें अपनी थीं,
और सबपर रौब जमाना था।
खाली साइकिल मिल जाने पर,
हम लेकर घूमा करते थे।।उस छांव भरी..

गर्मी  भी  एक  बहाना  था,
कैसे भी समय बिताना था।
ट्यूबवेल ही एक निशाना था,
दिन में  कई बार नहाना था।
अब सूख गया वह भी ट्यूबवेल,
जिसमें हम कूदा करते थे।।उस छांव भरी...
                          -मधुसूदन शुक्ल'कृष्ण'

©Madhusudan
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