(पंख जरा फैलाने दो) लोहे की जंजीरों से तोड़ पिंजरा आज चली हूंँ, घूरती नजरों से बच कर अपने पैरों पर आज खड़ी हूँ कितने पंख है मेरे पास इन्हें , गिनने आज चली हूँ। फैलू कुछ ऐसे की, मेरे पंख न झड़ पाए पहुंचु इतनी दूर शिखर मैं, कोई अब न छू पाए अब बस मुझको बढ़ने दो पंख जरा फैलाने दो