बिखरे हुए को खुद ही समेट लेते है। खुद के दर्दों से खुद को लपेट लेते है। पानी के बुलबुले सी हो गई हैं जिंदगी ख़त्म हो जाते हैं जब भी अटेक लेते है। बिखरे हुए को खुद ही समेट लेते है। खुद के दर्दों से खुद को लपेट लेते है। बुझती हुई शाम सा हो गया हूं मैं। बिना कुछ किए बदनाम सा हो गया हूं मैं। ढूंढ़ते हैं सब मुझे मुझमें मगर खुद में गुमनाम सा हो गया हूं मैं। जब से खोया हुआ घर परिंदा लौटा है। तब से उसी को देख लेते है। बिखरे हुए को खुद ही समेट लेते है। खुद के दर्दों से खुद को लपेट लेते है। पानी के बुलबुले सी हो गई हैं जिंदगी ख़त्म हो जाते हैं जब भी अटेक लेते है। ©Sandip rohilla #Silence अज्ञात