अासमान ने कितने परिंदों को बांध रखा हैं... आज़ादी होती ही नहीं हमने मान रखा हैं..। पी गया कितना ज़हर आपकी बेईमानी का... बहुत कुछ भूला दिया हैं और कुछ याद रखा हैं..। ये इंतज़ार तो मौत को भी नहीं मानता हैं... मरने के बाद भी किसीने खुली आँख रखा हैं..। तू आए और तेरे पाँव पड़े इस ख़्वाहिश में... हमने इस दिल को राह पे कितनी बार रखा हैं..। मेरा दर्द-ए-सिर मुद्दतों के बाद उतरा हैं... कौन शख़्स है किसने आज सिर पे हात रखा है..। हमे यक़ीन हैं एक दिन इंसाफ़ जरूर होगा ... इसलिए तेरे दर पे ये अपना हाल रखा हैं..। किसको फ़ुर्सत हैं जो किसी को तक़लिफ दे ‘ख़ब्तुल’... ये जितने भी दर्द हैं मैने खुद पाल रखा है..। इंसाफ़