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आंखे मेरी बंद थी, जिस्म पे बस लहू था, दर्द हों रहा

आंखे मेरी बंद थी, जिस्म पे बस लहू था,
दर्द हों रहा था, पर सुकून भी यही था,

भटका था मै जब, लगता तब सब सही था,
पर लगा आज, जन्नत तो हमेशा से यही था,


आंसू नही थे आंखो पे, लबों पे मुस्कान ना थी,
जिस्म पड़ा जमीन पे, जिसमे अब जान ना थी,

रूह भी मेरी सोच रही थी, क्या गलत क्या सही था,
पर लगा आज, जन्नत तो हमेशा से यही था!

©Ashutosh Kumar
  जन्नत 

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