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/) टाइपराइटर - कुछ यादें // मोबाइल का कैक्टस


/) टाइपराइटर  - कुछ यादें  //

मोबाइल का  कैक्टस ही अब बन गया है, गुलाब इस जहांँ का,
बंजर किसी ज़मीन सा हो गया है, वो पुराना  टाइपराइटर मेरा,
हाईटेक के इस ज़माने में, ना जाने कहांँ विलीन सा हो गया वो,
शोर करते थे कभी अल्फ़ाज़ जो,अब लगा ख़ामोशी का पहरा।

कभी टाइपराइटर पे उंगलियों को शान से दौड़ाया करते थे हम,
आज आधुनिकता की गर्द में, बेबस सा  किसी  कोने में है पड़ा,
अब इसकी बंजर ज़मीन पर, अल्फा़जों के फूल नहीं हैं खिलते,
मोबाइल की बहार सी क्या आई, छीन गई हमारी वास्तविकता।

भूल कर  सारी दुनिया सरपट चलाते हैं  उंगली हम मोबाइल पर,
कभी उंगलियों  की ये करामात, हम दिखाते थे टाइपराइटर पर,
दोस्तों से मिलने का भी बहाना बन  जाता सीखने के साथ साथ,
कितनी किसकी फास्ट टाइपिंग है चर्चा होती इसकी तुलना कर।

कितने  उत्साहित होते थे चार पांँच अक्षर भी जो कर लेते टाइप,
खज़ाना मिल जाता था जब  सिखाने वाले भी, कह देते थे राइट,
प्रतिदिन निर्धारित समय पर, पहुंँच जाते थे टाइपिंग सेंटर पे हम,
इतनी आसानी से खुश नहीं होते थे प्रशिक्षक होते थे बड़े टाइट।

अब तो डिजिटल हो गई दुनिया, मोबाइल बन चुका सबकी जुबां,
लाख कैक्टस हो मोबाइल में  पर इंसान  गुलाब ही उसे समझता,
अब न वो टाइपराइटर ही रहा  और ना रहा मिलने का बहाना ही, 
चारदीवारी में  ही बैठे-बैठे अब तो हर काम  झटपट  से हो जाता।

©Mili Saha
  
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