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वो मिलन लिखूॅं कि अब विरह जो भी है, सर्वस्व ही हो

वो मिलन लिखूॅं कि अब विरह
जो भी है, सर्वस्व ही हो तुम।
पत्तों से छनकर आई...
धूप-सी जीवन में छाॅंव तुम।
हर धड़क के बीच चुपचाप
अनसुनी ठहराव की साज तुम।
भावों की अनहद सीमाओं
को उन्मुक्त करती श्वास-वायु तुम।
मन को सहज ही बहलाती
हमारी आशाओं की अनंत आयु तुम।
तुम सब कुछ, तुम ही तत्पर
तुम मन के भीतर, बाहर भी हो तुम।
तुम सघन, तुम बिन निर्गुण-निर्धन,
हृदय की असीमितता, प्रेम बंधन भी हो तुम। ✍️🌹✨
वो मिलन लिखूॅं कि अब विरह
जो भी है, सर्वस्व ही हो तुम।
पत्तों से छनकर आई...
धूप-सी जीवन में छाॅंव तुम।
हर धड़क के बीच चुपचाप
अनसुनी ठहराव की साज तुम।
भावों की अनहद सीमाओं
वो मिलन लिखूॅं कि अब विरह
जो भी है, सर्वस्व ही हो तुम।
पत्तों से छनकर आई...
धूप-सी जीवन में छाॅंव तुम।
हर धड़क के बीच चुपचाप
अनसुनी ठहराव की साज तुम।
भावों की अनहद सीमाओं
को उन्मुक्त करती श्वास-वायु तुम।
मन को सहज ही बहलाती
हमारी आशाओं की अनंत आयु तुम।
तुम सब कुछ, तुम ही तत्पर
तुम मन के भीतर, बाहर भी हो तुम।
तुम सघन, तुम बिन निर्गुण-निर्धन,
हृदय की असीमितता, प्रेम बंधन भी हो तुम। ✍️🌹✨
वो मिलन लिखूॅं कि अब विरह
जो भी है, सर्वस्व ही हो तुम।
पत्तों से छनकर आई...
धूप-सी जीवन में छाॅंव तुम।
हर धड़क के बीच चुपचाप
अनसुनी ठहराव की साज तुम।
भावों की अनहद सीमाओं
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