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अपनापन नजदकियाँ ज्यादा हो तो, ना समझे उसे अपनापन।

अपनापन
नजदकियाँ ज्यादा हो तो, ना समझे उसे अपनापन।
दूरियाँ कम ना कर पाएँ, किसी भी तिजोरी का धन।।

पल-पल बदलती दिख रही है प्रवृत्ति यहाँ लोगों की,
आदर मिले उसी को यहाँ, जो ढेर लगा सके भोगो की।

भोग ना मिले समय पर तो बढ़ जाएँ आँखो का अँधापन,
अपने फिर नजर ना आएँ, कानो मे भी बढ़ जाएँ बहरापन।

पास रहने वालों में बढ़ती देखी है मीलों की दूरियाँ,
रहे मिलकर तो चला ना पाएँ, कोई अपनों पर छुरियाँ।

अपनो के हाथो अपनो में ही बढ़ता जाएँ सुनापन,
भूल सुधारने में कोई नहीं दिखाये अपना बड़प्पन।

बुराई जहाँ-जहाँ पले, वो अच्छाई भी अंकुरित होती है,
बुराई अपने विनाश के बीज अपने हाथो से बोती है।

बिना बीज सिंचित खेतों में बढ़ जाता है बंजरपन,
रसायनों के सतत् प्रयोग से बढ़ता जाएँ पागलपन।

दूर रहकर भी दूरियाँ मिटाने की कोशिश हो जाती है,
तन दिखता है सबको, पर आत्मा कहाँ खो जाती है।

तन को मन से जोड़ना है तो पास ना आएँ केवल धन,
धन को माने गौण, तो मन से मिल जाएँ सबका मन।

नजदकियाँ ज्यादा हो तो, ना समझे उसे अपनापन।
दूरियाँ कम ना कर पाएँ, किसी भी तिजोरी का धन।। अपनापन
नजदकियाँ ज्यादा हो तो, ना समझे उसे अपनापन।
दूरियाँ कम ना कर पाएँ, किसी भी तिजोरी का धन।।

पल-पल बदलती दिख रही है प्रवृत्ति यहाँ लोगों की,
आदर मिले उसी को यहाँ, जो ढेर लगा सके भोगो की।

भोग ना मिले समय पर तो बढ़ जाएँ आँखो का अँधापन,
अपनापन
नजदकियाँ ज्यादा हो तो, ना समझे उसे अपनापन।
दूरियाँ कम ना कर पाएँ, किसी भी तिजोरी का धन।।

पल-पल बदलती दिख रही है प्रवृत्ति यहाँ लोगों की,
आदर मिले उसी को यहाँ, जो ढेर लगा सके भोगो की।

भोग ना मिले समय पर तो बढ़ जाएँ आँखो का अँधापन,
अपने फिर नजर ना आएँ, कानो मे भी बढ़ जाएँ बहरापन।

पास रहने वालों में बढ़ती देखी है मीलों की दूरियाँ,
रहे मिलकर तो चला ना पाएँ, कोई अपनों पर छुरियाँ।

अपनो के हाथो अपनो में ही बढ़ता जाएँ सुनापन,
भूल सुधारने में कोई नहीं दिखाये अपना बड़प्पन।

बुराई जहाँ-जहाँ पले, वो अच्छाई भी अंकुरित होती है,
बुराई अपने विनाश के बीज अपने हाथो से बोती है।

बिना बीज सिंचित खेतों में बढ़ जाता है बंजरपन,
रसायनों के सतत् प्रयोग से बढ़ता जाएँ पागलपन।

दूर रहकर भी दूरियाँ मिटाने की कोशिश हो जाती है,
तन दिखता है सबको, पर आत्मा कहाँ खो जाती है।

तन को मन से जोड़ना है तो पास ना आएँ केवल धन,
धन को माने गौण, तो मन से मिल जाएँ सबका मन।

नजदकियाँ ज्यादा हो तो, ना समझे उसे अपनापन।
दूरियाँ कम ना कर पाएँ, किसी भी तिजोरी का धन।। अपनापन
नजदकियाँ ज्यादा हो तो, ना समझे उसे अपनापन।
दूरियाँ कम ना कर पाएँ, किसी भी तिजोरी का धन।।

पल-पल बदलती दिख रही है प्रवृत्ति यहाँ लोगों की,
आदर मिले उसी को यहाँ, जो ढेर लगा सके भोगो की।

भोग ना मिले समय पर तो बढ़ जाएँ आँखो का अँधापन,
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R.S. Meena

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