कभी...जो 'वर्तमान' में 'भविष्य' ढूँढते फिरते थे, आजकल.. 'वर्तमान' में 'भूतकाल' ढूँढते फिरते हैं, अपने ही कर्मों को दृष्टा बन तोलते हैं, और स्वयं पर हंसा करते हैं.... बाल सखाओं का हाल पूछते हैं, सहपाठियों को खोजते फिरते हैं, दो बिछड़े मिल जाएं, तो अन्यों को मिलकर खोजते हैं।। कहते हैं..बहुत नासमझ थे हम... पर, सिलसिला आगे भी जारी रखते हैं... कमजोर.. होते जा रहे दांत, आंत और शरीर... को पुनः बचपन के यादों की ताजगी से भर देते हैं... खेली हुई सब पारियां...पारदर्शी कांच की तरह, समक्ष प्रस्तुत हो जाती हैं... इन सबके बीच, बचपन पुनः बहुत लुभाने लग जाता है, क्योंकि निश्वार्थ प्रेम व निष्काम कर्म.. आदि-2 सच! उसी उम्र तक पक्का साथी रहा था... पहले वर्तमान में भविष्य की खोज और अब वर्तमान में भूत की ओर मानसिक यात्रा.. कभी-कभी दोनों दिशाओं में एकसाथ दौड़... इन सबके बीच "वर्तमान" को कोई न जी पाया... दुनियां... वो व्यूह है, जिसमें सब उलझे हैं, अभिमन्यु की तरह अन्ततः धराशायी हो गिर जाते हैं.. अर्जुन की तरह व्यूह से निकलना कोई जान भी ले, तो श्री कृष्ण कहाँ मिल पाते हैं? ©Tara Chandra #lifecycle