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मंदिर 02 प्रेम पथ के यात्री को क्रोध विक्षिप्त कर

मंदिर 02
प्रेम पथ के यात्री को क्रोध विक्षिप्त कर डालता है।
क्योंकि प्रेम अहंकार शून्य स्थिति में संभव है।
क्रोध अहंकार का पर्याय है।
प्रेम ह्वदय मे रहता है,अहंकार बुद्धि में।
स्वभाव से दोनों ही विरोधाभासी हैं।
प्रेम में व्यक्ति स्वयं को कभी नहीं देखता।
प्रेमी के आगे स्वयं लीन हो जाता है।
जैसे मन्दिर में ईश्वर के आगे
समर्पित होकर चित्त में
उसको स्थिर कर लेता है।
यही तो प्रेम की परिभाषा है।
वहां कभी दो नहीं रहते। सही अर्थो में तो कर्म का कर्ता भी व्यक्ति नहीं होता। जब कामना तथा कामना पूर्ति का निर्णय दोनों ही व्यक्ति के हाथ में नहीं हैं,तब उसका कर्ता भाव तो पीछे छूट चुका होता है। फल उसके हाथ में होता ही नहीं है। कामना का केन्द्र मन है। मन चाहे तो कामना प्राण के साथ जुड़कर वाक् (सृष्टि) का निर्माण करता है।

चाहे तो विज्ञानमय चेतना का सहारा लेकर शान्त्यानन्द में लीन हो जाता है। किसी व्यक्ति को देखते ही मन में क्रोध का भाव जाग्रत हुआ,तब इसका कारण उसका कोई कर्म तो नहीं है। उसने कुछ किया ही नहीं है। बस,उसे देखते ही क्रोध आ गया। प्रारब्ध का यही रूप है। आप भी बिना विचारे क्रोध में फुफकारने लगते हो। सामने वाला भले कोई भी स्वजन-परिजन हो,प्रतिक्रिया जताता है। यहां जो व्यवहार है,वह शुद्ध प्रकृति दत्त है। प्रत्येक प्राणी में एक जैसा होता है। मानव में ही यह क्षमता है कि वह चाहे तो विवेक पूर्वक इस परिस्थिति को टाल सकता है। विवेक ही प्रारब्ध को भाग्य में बदलने मे सक्षम है।

ईश्वर ने ही उसके मन में इच्छा पैदा की है कि वह यहां आए। त्रिगुणी बुद्धि के निर्णय से ही वह चलकर यहां पहुंचा है। उसने भी अभी तक अपने विवेक का उपयोग नहीं किया है। वह भी पशुभाव में ही है। यदि तुमने अपना हिंसक रूप दिखाया तो वह भी टूट पड़ेगा। दोनों के बीच भावनात्मक दूरी बढ़ जाएगी। जो थोड़ी भी श्रद्धा या विश्वास है,वह भी न्यूनतम हो जाएगा। नए कर्मबन्ध भी पैदा होंगे। मौन ही रहो।’ क्रोध अध्यात्म यात्रा का बड़ा शत्रु है।

जब पता तेरा लगा,तो अब पता मेरा नहीं। स्वयं का यह गौण हो जाना ही कर्ता भाव का लीन/गौण हो जाना है। यही अग्नि पुरूष में सोम की आहुति है। यही स्त्रैण है। प्रेम की पराकाष्ठा है। प्रेम को रस या ब्रह्म कहा है। रसो वै स:। वही ब्रह्म या ईश्वर होने से मन भी मन्दिर कहलाता है। जब किसी को देखकर मन में क्रोध जागे या वासना का उदय हो,तब पहली प्रतिक्रिया हो कि इसको ईश्वर ने मेरी परीक्षा लेने भेजा है। मुझे पास होना है। मेरे भीतर भी ईश्वर बैठा है। क्या वह फेल हो सकता है! यही विवेक समय के साथ व्यक्ति को इन्द्र्रिय निग्रह में पारंगत करता है। भावनाओं को सात्विक बनाता है।
मंदिर 02
प्रेम पथ के यात्री को क्रोध विक्षिप्त कर डालता है।
क्योंकि प्रेम अहंकार शून्य स्थिति में संभव है।
क्रोध अहंकार का पर्याय है।
प्रेम ह्वदय मे रहता है,अहंकार बुद्धि में।
स्वभाव से दोनों ही विरोधाभासी हैं।
प्रेम में व्यक्ति स्वयं को कभी नहीं देखता।
प्रेमी के आगे स्वयं लीन हो जाता है।
जैसे मन्दिर में ईश्वर के आगे
समर्पित होकर चित्त में
उसको स्थिर कर लेता है।
यही तो प्रेम की परिभाषा है।
वहां कभी दो नहीं रहते। सही अर्थो में तो कर्म का कर्ता भी व्यक्ति नहीं होता। जब कामना तथा कामना पूर्ति का निर्णय दोनों ही व्यक्ति के हाथ में नहीं हैं,तब उसका कर्ता भाव तो पीछे छूट चुका होता है। फल उसके हाथ में होता ही नहीं है। कामना का केन्द्र मन है। मन चाहे तो कामना प्राण के साथ जुड़कर वाक् (सृष्टि) का निर्माण करता है।

चाहे तो विज्ञानमय चेतना का सहारा लेकर शान्त्यानन्द में लीन हो जाता है। किसी व्यक्ति को देखते ही मन में क्रोध का भाव जाग्रत हुआ,तब इसका कारण उसका कोई कर्म तो नहीं है। उसने कुछ किया ही नहीं है। बस,उसे देखते ही क्रोध आ गया। प्रारब्ध का यही रूप है। आप भी बिना विचारे क्रोध में फुफकारने लगते हो। सामने वाला भले कोई भी स्वजन-परिजन हो,प्रतिक्रिया जताता है। यहां जो व्यवहार है,वह शुद्ध प्रकृति दत्त है। प्रत्येक प्राणी में एक जैसा होता है। मानव में ही यह क्षमता है कि वह चाहे तो विवेक पूर्वक इस परिस्थिति को टाल सकता है। विवेक ही प्रारब्ध को भाग्य में बदलने मे सक्षम है।

ईश्वर ने ही उसके मन में इच्छा पैदा की है कि वह यहां आए। त्रिगुणी बुद्धि के निर्णय से ही वह चलकर यहां पहुंचा है। उसने भी अभी तक अपने विवेक का उपयोग नहीं किया है। वह भी पशुभाव में ही है। यदि तुमने अपना हिंसक रूप दिखाया तो वह भी टूट पड़ेगा। दोनों के बीच भावनात्मक दूरी बढ़ जाएगी। जो थोड़ी भी श्रद्धा या विश्वास है,वह भी न्यूनतम हो जाएगा। नए कर्मबन्ध भी पैदा होंगे। मौन ही रहो।’ क्रोध अध्यात्म यात्रा का बड़ा शत्रु है।

जब पता तेरा लगा,तो अब पता मेरा नहीं। स्वयं का यह गौण हो जाना ही कर्ता भाव का लीन/गौण हो जाना है। यही अग्नि पुरूष में सोम की आहुति है। यही स्त्रैण है। प्रेम की पराकाष्ठा है। प्रेम को रस या ब्रह्म कहा है। रसो वै स:। वही ब्रह्म या ईश्वर होने से मन भी मन्दिर कहलाता है। जब किसी को देखकर मन में क्रोध जागे या वासना का उदय हो,तब पहली प्रतिक्रिया हो कि इसको ईश्वर ने मेरी परीक्षा लेने भेजा है। मुझे पास होना है। मेरे भीतर भी ईश्वर बैठा है। क्या वह फेल हो सकता है! यही विवेक समय के साथ व्यक्ति को इन्द्र्रिय निग्रह में पारंगत करता है। भावनाओं को सात्विक बनाता है।