चल रही सुगंधित थी समीर मैं बैठा था खेतों में उस वृद्ध पिता की फटी पुरानी धोती लेके सहसा माँ की याद आ गई जो बैठी थी घर में रोटी लेके घर आया तो देखा माँ की आंखें इतनी नम थी ठिठुर रही थी ठंड से वो जो तन पर धोती कम थी देख दृश्य हुआ अकुंठित मन, मैंने फिर यह ठाना नही रहना इस दुनिया में इससे अच्छा जाना देख रही थी दूर खड़ी माँ मेरे भावों को पड़ डाला आकर गले लगी फिर रो कर सब कह डाला इतनी ख़ुशी नही मैंने इस जीवन मे पाई जितनी खुशियां उस क्रुन्दन में माँ थी दिखलाई ~vivek singh vicky like comment & share My mom...... by vivek Vicky (my first poem for mom)