.... पता नहीं क्यूँ दिल और मन दोनों ही साफ होने के बावजूद हम किसी सदमे में क्यूँ जी रहे होते हैं. हुआ कुछ नहीं होता है फिर भी ये फालतू का सोचना और सोचते रहना.. कहते हैं खाली दिमाग़ शैतान का घर होता है पर ये भरा-भरा सा ही दिमाग़ ही तो उस शैतान को invite करता है खुद को खाली करने के लिए वो कभी खाली नहीं होता है पता नहीं किस महान आत्मा ने ये कहा था " खाली दिमाग़ शैतान का घर ",. कुछ नहीं बस ऐसे ही. कभी-कभी लगता मैं अंदर से बहुत खाली सी हो गयी हूँ और कभी लगता जैसे बहुत कुछ भरा पड़ा हो मुझमें. मैं जानती हूँ और अच्छे से जानती हूँ यह जो भी है सब बस अस्थायी है कुछ भी स्थायी नहीं और कल जब यह वक़्त बीत जायेगा और मैं पीछे मुड़कर इस वक़्त को याद करूंगी तो कहूंगी सब बेवजह था और मैंने अपनी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा बस सोचने में बिता दिया बजाय इसके मैं उसे कुछ बेहतर करने में गुज़ार सकती थी और अपने हालात और ज्यादा अच्छे कर सकती थी. फिलहाल मेरा दिमाग़ खाली तो बिल्कुल नहीं है पर यहाँ शैतान ज़रूर रह-बस रहा है और ऐसा लगता है उसको भी दौरे पड़ते हैं मान न मान मैं तेरा मेहमान. अभी इसको मिर्ची का धुंआ देना पड़ेगा या फिर कोई टोना-टोटका करना पडिंगा. वैसे मैं ठीक हूँ. शायद ये सबके साथ होता है हमेशा नहीं कभी-कभी. बस यूँ ही बैठे-बैठे कोई ख्याल परत-दर-परत अंदर ही अंदर कुतरता रहता है और हम खुद पर, तो कभी समय पर रो कभी भाग्य पर दोषारोपण करते रहते हैं. मेरी नानी अक्सर सुबह जल्दी उठ जाया करती और नानू भी. अम्मा ( नानी ) सुबह घर के सारे काम निपटा कर बाहर काम पर जाती थी और नानू सुबह से जो शुरू होते थे तो उनका स्पीकर एक बार on होकर कभी off नहीं होता था. नानू अपने मन और दिल बात हम सबको डांट डपट कर बोल दिया करते थे. अम्मा ( नानी) बहुत शांत सी थी वो सब अपने अंदर लेकर रखती थी किसी से कुछ न कहती थी भगवान जाने अम्मा के क्या दुःख थे और कितने दुःख थे. मैं तब बच्ची हुआ करती थी और हॉस्टल में पढ़ती थी. अम्मा का bp high होता था और शायद अम्मा को hypertension भी हो रखा था शायद. मुझे ज्यादा नहीं पता पर कहते हैं अम्मा के दिमाग़ की नस फट गयी थी. वो सब देख पा रही थी महसूस कर पा रही थी पर कुछ बोल नहीं पा रही थी. पूरा दिन अस्पताल में बिताने के बाद अम्मा शाम को चैन की नींद सो गयी थी और इस तरह मैंने अपनी दूसरी माँ को भी खो दिया था..उन्हें कोई सुनने वाला नहीं था और मैं उन्हें सिर्फ देखती थी पर समझती नहीं थी. एक तो उनकी बातें ( बड़ों की बातें ) मेरी समझ से बाहर थी और दूसरा मुझमें शायद क्षमता भी नहीं थी उनकी बातों को समझ पाने की..