*कहाकही* नदी कहती, मैं कल कल ही बहती गर तुमने जो मुझको बांधा न होता। पर्वत कहता, मैं अचल ही रहता गर मुझपर रास्तों को तराशा न होता। हवा कहती, मैं शीतल ही बहती गर मुझको मलीन किया न होता। जंगल कहते, हम घनेरे ही रहते गर तुमने वृक्षों को काटा न होता। सागर कहता, मैं उग्र न होता गर गंदगी का बोझ डाला न होता। मानवता कहती, हम सब एक है गर कुछ दानवों ने बांटा न होता। वसुधा कहती दुनिया अमंगल ही होती गर मैंने इसे अमृत से सींचा न होता। स्त्री कहती ये दुनिया खंडहर ही होती गर गृहस्थी का बोझ हमने उठाया न होता। *कहाकही* नदी कहती, मैं कल कल ही बहती गर तुमने जो मुझको बांधा न होता। पर्वत कहता, मैं अचल ही रहता गर मुझपर रास्तों को तराशा न होता।