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कवि की कलम जब आग दिलों में है जलती, तब कलम कवि की

कवि की कलम

जब आग दिलों में है जलती,
तब कलम कवि की है चलती।

हर रोज़ निशा भी सँग जगती,
हर बात की साक्षी वह बनती।
जब हृदय में पीर कोई पलती
तब कलम कवि की है चलती। 

जब सारा जग है सो जाता,
जब स्याह अँधेरा हो जाता।
जब रात घनेरी कुछ कहती,
तव कलम कवि की है चलती।

घड़ी भी टिक-टिक ये करती,
खुद से खुद वह बातें करती।
जब शाम सिन्दूरी बन ढलती,
तब कलम कवि की है चलती।

जब किरण सबेरे बिखराती,
सतरंगी छटाएँ निखारती।
जब खुशबू चमन में है घुलती,
तब कलम कवि की है चलती।

जब भूख से कोई यहाँ मरता,
जब भीड़ से कोई यहाँ डरता।
जब ज्वालामुखी बनके फटती,
तब कलम कवि की है चलती।

जब राह कोई भी भटकता है,
फाँसी पे किसान लटकता है।
जब सज़ा बिना कोई ग़लती,
तब कलम कवि की है चलती।

जब कानून ही अंधा हो जाता,
भ्रष्टाचार ही धँधा हो जाता।
जब पाप की गंगा है बहती,
तब कलम कवि की है चलती।
©पंकज प्रियम
03/10/2019 कवि की कलम
कवि की कलम

जब आग दिलों में है जलती,
तब कलम कवि की है चलती।

हर रोज़ निशा भी सँग जगती,
हर बात की साक्षी वह बनती।
जब हृदय में पीर कोई पलती
तब कलम कवि की है चलती। 

जब सारा जग है सो जाता,
जब स्याह अँधेरा हो जाता।
जब रात घनेरी कुछ कहती,
तव कलम कवि की है चलती।

घड़ी भी टिक-टिक ये करती,
खुद से खुद वह बातें करती।
जब शाम सिन्दूरी बन ढलती,
तब कलम कवि की है चलती।

जब किरण सबेरे बिखराती,
सतरंगी छटाएँ निखारती।
जब खुशबू चमन में है घुलती,
तब कलम कवि की है चलती।

जब भूख से कोई यहाँ मरता,
जब भीड़ से कोई यहाँ डरता।
जब ज्वालामुखी बनके फटती,
तब कलम कवि की है चलती।

जब राह कोई भी भटकता है,
फाँसी पे किसान लटकता है।
जब सज़ा बिना कोई ग़लती,
तब कलम कवि की है चलती।

जब कानून ही अंधा हो जाता,
भ्रष्टाचार ही धँधा हो जाता।
जब पाप की गंगा है बहती,
तब कलम कवि की है चलती।
©पंकज प्रियम
03/10/2019 कवि की कलम