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बहुत मुमकिन है कि इंसान मिल जाए जंगलों की खाक़ छान

बहुत मुमकिन है कि इंसान मिल जाए 
जंगलों की खाक़ छानता हूँ मैं आजकल 
.
शहर में तो बस बहस करते हैं बात नही
बिना सुने ही उनकी मानता हूँ मैं आजकल
.
गुम गया था मैं भी चिल्लाती बेक़ाबू भीड़ में 
वीराने में खुद को पहचानता हूँ मैं आजकल
. 
खरीद लिया है मैंने भी इक अदद आइना 
कह सकता हूँ कि मुझे जानता हूँ मैं आजकल
.
धीर मुम्बई
बहुत मुमकिन है कि इंसान मिल जाए 
जंगलों की खाक़ छानता हूँ मैं आजकल 
.
शहर में तो बस बहस करते हैं बात नही
बिना सुने ही उनकी मानता हूँ मैं आजकल
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गुम गया था मैं भी चिल्लाती बेक़ाबू भीड़ में 
वीराने में खुद को पहचानता हूँ मैं आजकल
. 
खरीद लिया है मैंने भी इक अदद आइना 
कह सकता हूँ कि मुझे जानता हूँ मैं आजकल
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धीर मुम्बई

मुम्बई