बहुत मुमकिन है कि इंसान मिल जाए जंगलों की खाक़ छानता हूँ मैं आजकल . शहर में तो बस बहस करते हैं बात नही बिना सुने ही उनकी मानता हूँ मैं आजकल . गुम गया था मैं भी चिल्लाती बेक़ाबू भीड़ में वीराने में खुद को पहचानता हूँ मैं आजकल . खरीद लिया है मैंने भी इक अदद आइना कह सकता हूँ कि मुझे जानता हूँ मैं आजकल . धीर मुम्बई