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हमने हरदम ये रीत निभाई है सबसे प्रीत लगाई है गैरों

हमने हरदम ये रीत निभाई है सबसे प्रीत लगाई है
गैरों से सीखने के चक्कर में सभ्यता अपनी भुलाई है
पश्चिमी सभ्यता का अनुकरण माना है बेकार नहीं 
बदलो घर का कैलेंडर पर अपना यह त्योहार नहीं  
चहुं ओर धुंध सा छाया है विटपों के पत्ते सिकुड़े है
हर शख्स ठंड ठिठुर रहा और अंग-अंग भी अकड़े है
ऐसी विषम परिस्थितियां उल्लास का आधार नहीं
बदलो घर का कैलेंडर पर अपना यह त्योहार नहीं ।।
कुछ शुभ करने का भी रहता है जब मास नहीं
सूर्य अश्व विश्राम की खातिर होता है खरमास यहीं
दिनकर की किरणें भी जब तेजहीन सी लगती है
हड्डी मे भी ठिठुरन हो ऐसी शीतल बयार चलती है
ऐसे में आह्लादित होना कितना है व्यवहार सही
बदलो घर का कैलेंडर पर अपना यह त्योहार नहीं  ।।
कुछ दिन ठहर जाओ फिर वृक्षों पर नवांकुर आएंगे
नए खिले पुष्पों पर फिर तितली-भौंरे मंडराएंगे
चहुं ओर फैलेगी हरियाली और ऋतु बसंत आएंगी
प्रकृति इस धरा को स्वयं अपने हाथों सजाएगी
फिर बीत मास फाल्गुन का जब चैत्र प्रतिपदा आएगी
नववर्ष का अद्भुत आगमन मां दुर्गा स्वयं साथ लाएगी
इसके अलावा और कोई नववर्ष मुझको स्वीकार नहीं 
बदलो घर का कैलेंडर पर अपना यह त्योहार नहीं ।।

©saurabh pandey
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