फिक्र रहती है कई ख्वाबों की मुद्दतों से मैंने बेफिक्र होकर घर नहीं देखा।। दिल छूट जाता है गांव में ही कहीं मैंने कभी दिल से शहर नहीं देखा।। जो होते हैं सच्चे वो ठोकरें खा रहे हैं हर तरफ मैंने कभी झूठों को दर-बदर नहीं देखा।। वह खुद को मुझे दिखाने महफिल में आया था चाह मुझको भी थी देखने की,, मगर नहीं देखा।। मैं खो गया खुद में जप्त मौसम में मैंने उसका रूठने का पहर नहीं देखा।। ©नितीश निसार #नहींदेखा