बेग़म साहिबा part-2 वो मासूम सबकी लाडली हो चली थी। जैसे एक आग का तिनका काफी होता हैं किसी तैयार खेत को तबाह करने के लिए औऱ मजबूर कर देता हैं किसान को आत्महत्या करने पर,उसी प्रकार एक मामूली फ़ोन कॉल पर बोला गया एक शब्द "बेग़म साहिबा"काफ़ी था उसकी ज़िंदगी में एक तूफ़ान लाने के लिये।वो मासूम असमंजस में थीं शब्द का अर्थ समझकर ही बौखला गयी,गहराई समझ जाती तो शायद वो भी हो हिम्मत हार जाती किसान की तरह।आखिर कौन होगा,नम्बर कहाँ से मिला होगा इस सोच में डूबी ही हुई थी की अचानक फ़ोन की घण्टी फिर बजी औऱ वो सहम जाती हैं।काँपते हाथों से फ़ोन उठाते ही उधर से एक चौंका देने वाली आवाज कैसी हो बेग़म साहिबा।सहमी सी वो लड़की न कुछ कह पायी "कौन"पर आकर मानो उसकी जुबान धोखा दे गयी।समाज के डर से वो कह नही पाती पर चुप रहना भी तो एक ज़ुल्म होता है खुद पर समाज पर एक खेल होता है उनके साथ जो अब तक नही आये है इस दुनिया में,और सबसे बड़ा धोखा होता है माँ-बाप के साथ।