इंसाँ इतना हैराँ क्यों है मजलूमों पर ज़ुल्म ढा कर परेशाँ क्यों है ख़ुदा का रुख़ तूने कभी किया नही फिर दिल मे कई अरमाँ क्यों है परेशा क्यो है