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माँ कविता "माँ!" तू, माँ! है, तुझसे ही, जग और जहा

माँ कविता
"माँ!"
तू, माँ! है, 
तुझसे ही, जग और जहाँ है। 
तू, आरंभ! है, आगाज़-का, 
और, तुझसे ही, अंत! की, ललकार है। 
तुझसे, न दूजा, ब्रम्हांड! में है, 
क्योंकि, करुणा-का, समंदर!, तुझमें जो है। 
मैं, शिव! नहीं, मैं शक्ति! नहीं, 
मेरी, इतनी, हैसियत! नहीं। 
तो, कैसे, करूँ? वर्णन!, तेरे, अस्तित्व! का???, 
तुझसे ही, मेरा अस्तित्व! है, 
 और, तुझसे ही, मेरा व्यक्तित्व! है। 
हाँ!, बस, इतना जानता हूँ, 
और, इतना ही, पहचानता हूँ। 
ईश्वर!, भी, मुझसे जलता होगा, 
क्योंकि, माँ!, शब्द, उसके पास न होगा। 
हे, माँ!, तू-अतुल्नीय! है, 
माँ!, तू-अविस्मरणीय! है। 
तेरा, ऋण!, न चुका पाऊँगा, 
बदले, में, तुझे न, कुछ दे पाऊँगा। 
बस, प्रार्थना!, यही है, ईश्वर! से, 
अगर!, होता, जन्म! दुबारा है। 
तो, पाऊँ, ममता!-का, सुख तुझसे, 
बस, यही, स्वप्न! हमारा है। 
अब, मैं देता, 
वाणी! को, विराम! हूँ। 
क्योंकि, तू, माँ! है, 
और, तुझसे!  ही, जग और जहाँ है।
- ईशान शर्मा
           (साम्राट)✍🚩

©Ishan Sharma #माँ_❤
माँ कविता
"माँ!"
तू, माँ! है, 
तुझसे ही, जग और जहाँ है। 
तू, आरंभ! है, आगाज़-का, 
और, तुझसे ही, अंत! की, ललकार है। 
तुझसे, न दूजा, ब्रम्हांड! में है, 
क्योंकि, करुणा-का, समंदर!, तुझमें जो है। 
मैं, शिव! नहीं, मैं शक्ति! नहीं, 
मेरी, इतनी, हैसियत! नहीं। 
तो, कैसे, करूँ? वर्णन!, तेरे, अस्तित्व! का???, 
तुझसे ही, मेरा अस्तित्व! है, 
 और, तुझसे ही, मेरा व्यक्तित्व! है। 
हाँ!, बस, इतना जानता हूँ, 
और, इतना ही, पहचानता हूँ। 
ईश्वर!, भी, मुझसे जलता होगा, 
क्योंकि, माँ!, शब्द, उसके पास न होगा। 
हे, माँ!, तू-अतुल्नीय! है, 
माँ!, तू-अविस्मरणीय! है। 
तेरा, ऋण!, न चुका पाऊँगा, 
बदले, में, तुझे न, कुछ दे पाऊँगा। 
बस, प्रार्थना!, यही है, ईश्वर! से, 
अगर!, होता, जन्म! दुबारा है। 
तो, पाऊँ, ममता!-का, सुख तुझसे, 
बस, यही, स्वप्न! हमारा है। 
अब, मैं देता, 
वाणी! को, विराम! हूँ। 
क्योंकि, तू, माँ! है, 
और, तुझसे!  ही, जग और जहाँ है।
- ईशान शर्मा
           (साम्राट)✍🚩

©Ishan Sharma #माँ_❤