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सहर आफ़ताब को नज़र भर निहार भी नहीं पाती कि, माहताब

सहर आफ़ताब को 
नज़र भर निहार भी नहीं पाती
कि,
माहताब शब की कलाइयाँ पकड़
आ बैठता है मेरे तकिये तले!

फरागत की दोपहरी थम कर
किस्से सुना भी नहीं पाती
कि,
रोज़गारी के कामों की फेहरिस्त
उठा देती है मुझे चबूतरे से यकायक!

सब कुछ है यहाँ,
जो भाग रहा है....
वक़्त,
इश्क़,
राब्ता
और तुम...
 
और जो ठहर सा गया है
वह महज
मैं हूँ!!! भागती है दुनिया,
ठहरती हूँ मैं!
हर बार खुद ही से,
बहलती हूँ मैं!
© स्मृति
सहर आफ़ताब को 
नज़र भर निहार भी नहीं पाती
कि,
माहताब शब की कलाइयाँ पकड़
आ बैठता है मेरे तकिये तले!

फरागत की दोपहरी थम कर
किस्से सुना भी नहीं पाती
कि,
रोज़गारी के कामों की फेहरिस्त
उठा देती है मुझे चबूतरे से यकायक!

सब कुछ है यहाँ,
जो भाग रहा है....
वक़्त,
इश्क़,
राब्ता
और तुम...
 
और जो ठहर सा गया है
वह महज
मैं हूँ!!! भागती है दुनिया,
ठहरती हूँ मैं!
हर बार खुद ही से,
बहलती हूँ मैं!
© स्मृति