भगवान श्रीकृष्ण को उनकी मैया 'लल्ला' कहती थीं। श्री हरि ने यह अधिकार अपने किसी भी जन्म में किसी और को नहीं दिया। उनके बालरूप की मनोहर छवि को ध्यान में रख के एक से बढ़कर एक साहित्यिक रचनाएं की गईं, जिनमें से लगभग अधिकांश में "मैया और कान्हा" ही केंद्र में रहीं, "पिता" सदैव नेपथ्य में ही रहे। प्रस्तुत है मेरी कलम से भी, कान्हा जैसी संतान की कामना से भरी, एक कविता, जिसका शीर्षक है... "लल्ला" ✍️ लल्ला समय बीतता चला जा रहा अपनी निश्चित गति-से, उसे क्या लेना-देना, किसी की उन्नति से, अवनति से। आंगन जबतक सूना है संतान से-किलकारी से, श्याम, हमारा जीवन जड़वत, वंचित निज संतति से। कानों में जबतक दुखियों की चीख नहीं पड़ती है, क्या उनकी अन्तर्व्यथायें तुमको दीख नहीं पड़ती हैं। क्या कोई मोल नहीं है मेरी मौन याचनाओं का,