वो अपने हुस्न, अपनी आरज़ू, अपनी आबरू, लपेटे लिहाज, समेटे लिहाफ में अपनी जिंदगानी अंजुलि में भर, कलमें पढ़ते उम्र भर!! तू गुनहगार सा, ढ़ूंढे पाक़ जिस्म पर लगे निशान बस, उसके नादान मन को कुरेद कर नए-नए लफ़्ज़ों में सुनाता क़ज़ा तू बिन जुर्म के, बनता है ख़ुदा!! मुहब्बत की कीमत वो अदा करने वाले चुकाते रहे, तेरी दगा को अपने ज़हन में दबाए, हर्फ-हर्फ लब पे सज़दा तेरा ही लिए लुटते फ़िर रहे इस मगरुर ज़माने में!! ~क़ज़ा~ वो अपने हुस्न, अपनी आरज़ू, अपनी आबरू, लपेटे लिहाज, समेटे लिहाफ में अपनी जिंदगानी अंजुलि में भर, कलमें पढ़ते उम्र भर!! तू गुनहगार सा, ढ़ूंढे पाक़ जिस्म पर लगे निशान बस, उसके नादान मन को