स्व से बंधित मैं, अहम् द्वेष से परिपूर्ण समस्त रागों को स्वाह कर और सत्व में कर विलीन ; दीप्त प्रह्लाद कुसुमित हो हो नव चेतन में, चित्त अन्तर्लीन.... हिरण्यकश्यपु और प्रह्लाद दो दृष्टिकोन है, जहाँ..... ★ हिरण्यकश्यपु लड़ता है, और प्रह्लाद जोड़ता है । ★ हिरण्यकश्यपु इन्द्रियों का भोग करता है , और प्रह्लाद इन्द्रियनिग्रह की बात करता है । ★ हिरण्यकश्यपु के लिए सारा संसार भी प्रयाप्त नही है, जबकि प्रह्लाद कामना रहित संतुष्ट है । ★ हिरण्यकश्यपु ईश्वर और जीव में एक्य नही देख पा रहा है, परंतु प्रह्लाद जीव जगत और ईश्वर में एक्य देख पा रहा है । जीव और जगत का सम्बन्ध वैसा ही है, जैसे दृष्टा और दृश्य का, जीव - दृष्टा है, कर्ता है, और भोक्ता है जगत - दृश्य है, कर्म है, और भोग्य है । परंतु जीव और जगत दोनों ब्रह्म ही है ।