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#काँधे से अधरों तक..... समग्र की अभिलाषा में बहुत

#काँधे से अधरों तक.....

समग्र की अभिलाषा में
बहुत कुछ मध्य में ही छूट गया
जबकि न प्रारब्ध वश में है और न ही अंत!

अचंभित होती हूँ
इच्छाओं की हठधर्मिता पर
कि कैसे अपने अवसान पर 
क्षीण होने की बजाय उग्र हो उठती हैं
उस समय
शरतचंद्र जी के देवदास का चरित्र
भुवन मोहन चौधरी 
मुझे देख
मुस्करा देता है।

देह की देहरी लाँघ 
मन चार भिन्न दिशाओं में बँटा!

सुनो, बिल्कुल कठिन नहीं था
तुम्हारे काँधे से अधरों तक का सफर
बस कुल जमा चार दिशाओं का असमंजस भर ही तो लगा!!
--सुनीता डी प्रसाद💐💐









 #काँधे से अधरों तक.....

समग्र की अभिलाषा में
बहुत कुछ मध्य में ही छूट गया
जबकि न प्रारब्ध वश में है और न ही अंत!

अचंभित होती हूँ
इच्छाओं की हठधर्मिता पर
#काँधे से अधरों तक.....

समग्र की अभिलाषा में
बहुत कुछ मध्य में ही छूट गया
जबकि न प्रारब्ध वश में है और न ही अंत!

अचंभित होती हूँ
इच्छाओं की हठधर्मिता पर
कि कैसे अपने अवसान पर 
क्षीण होने की बजाय उग्र हो उठती हैं
उस समय
शरतचंद्र जी के देवदास का चरित्र
भुवन मोहन चौधरी 
मुझे देख
मुस्करा देता है।

देह की देहरी लाँघ 
मन चार भिन्न दिशाओं में बँटा!

सुनो, बिल्कुल कठिन नहीं था
तुम्हारे काँधे से अधरों तक का सफर
बस कुल जमा चार दिशाओं का असमंजस भर ही तो लगा!!
--सुनीता डी प्रसाद💐💐









 #काँधे से अधरों तक.....

समग्र की अभिलाषा में
बहुत कुछ मध्य में ही छूट गया
जबकि न प्रारब्ध वश में है और न ही अंत!

अचंभित होती हूँ
इच्छाओं की हठधर्मिता पर