|| श्री हरि: || सांस्कृतिक कहानियां - 11
।।श्री हरिः।।
11 - वीरता का लोभ
शरद् की सुहावनी ऋतु है। दो दिन से वर्षा नहीं हुई है। पृथ्वी गीली नहीं है; परंतु उसमें नमी है। आकाश में श्वेत कपोतों के समान मेघशिशु वायु के वाहनों पर बैठे दौड़-धूप का खेल खेल रहे हैं। सुनहली धूप उन्हें बार-बार प्रोत्साहित कर जाती है। पृथ्वी ने रंग-बिरंगे पुष्पों से अंकित नीली साड़ी पहन रखी है। पतिंगे के झुण्ड दरारों में से निकल कर आकाश में फैलते जा रहे हैं। आमोद और उत्साह के पीछे मृत्यु के काले भयानक हाथ भी छिपे हैं, इसका उन्हें न पता है और न चिन्ता ही।
भिंडी के खेत में मोटा बंदर दोनों हाथों से भिंडियाँ तोड़कर मुँह भरता जा रहा है। उसके कण्ठ के दोनों ओर का भाग फूल उठा है। बार-बार वह दो पैरों से खड़ा होता है, इधर-उधर देखता है और फिर नीचे बैठकर भिंडियों को मुख में भरने लगता है। उसे अपना पेट भर लेना है। कोई आवे और पत्थर मारे, इससे पहले भागकर आम के पेड़ पर चढ जाने को उसे प्रस्तुत रहना है। वीरता दिखाना होगा तो आम की डाल पर पहुँच कर, मुख नीचे झुकाकर, खों-खों करके वह दिखा लेगा। अभी तो उसे सावधान रहना है।