मेरा शहर जाने कब-कब कैसे-कैसे, बदलता रहा मेरा शहर। कंक्रीटों के जंगलों में, ढलता रहा मेरा शहर।। नाले नदी सब ढक दिया, पेड़ सारे काटकर। अब वहीं सांस लेने को ,मचलता रहा मेरा शहर।। खो दिया पगडंडियां, खोयी सड़क वो कच्ची सी। और काली पट्टीयों में, बदलता रहा मेरा शहर।। सबको समेटने की चाह में, बाहें वो फैलाता रहा। भीड़ जब बढने लगी, कुम्हलाता रहा मेरा शहर।। लील कर खलिहान को, मजदुर वो बढ़ाता रहा। और किसानों का हुनर , निगलता रहा मेरा शहर।। उंची-उंची कोठीयांऔर, माल से है भर गया। दो दिनों की बारिस में बजबजाता रहा मेरा शहर।। जंगलों को काटकर, पर्यावरण की याद आयी। चंद पेड़ो को लगाकर , मुस्कुराता रहा मेरा शहर।। आधुनिकता के दौर में, तकनिकियों के जोर पर। लगे पेड़ो से ही चिपककर, तस्वीर खिंचवाता रहा मेरा शहर।। मनोज कुमार मिश्र 02/11/2019 मेरी कविताएं