फ़राज़ क़लम तो लिख गए ज़रा ख़ुश्बू से उड़ा के फैले गुस्ताख़ी माफ़ हो कि चलते चलते माधव वो कलाम कैसे लिखे । *सुना है लोग उसे आंख भर के देखते हैं, सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं, सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से सो अपने आप को बर्बाद कर के देखते हैं, सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी, सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं, सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शरफ्त सो हम भी मोइज़्ज़-ए-अपने हुनर के देखते हैं सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं ये बात है तो चलो बात करके देखते हैं सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है सितारे बाम-ए-फलक से उतर के देखते हैं सुना है दिन को उसे तितलियां सताती हैं सुना है रात को जुगनू गुज़र के देखते हैं सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखे सुना है उसको हिरन दश्त भर के देखते हैं सुना है उसकी स्याह चश्मगी क़यामत है सो उसको सूरमोफरोश आँख भर के देखते हैं सुना है उसके लबों से ग़ुलाब जलते हैं सो हम बहार पे इल्ज़ाम धर के देखते हैं सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी जो सादे दिल हैं उसे बन संवर के देखते हैं सुना है उसके बदन की तराश ऐसी है के फूल अपनी कबायें क़तर के देखते हैं बस इक निगाह में उठता है काफ़िला दिल का सो रहरबां-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त.... .... (आगे) मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं किसे नसीब के बेपैरहन उसे देखे कभी कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ करती हैं चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं कहानियां ही सही, सब मुबालगें ही सही