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जीवन और मृत्यु ***************** (चिंतन) 👇👇👇

जीवन और मृत्यु 
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(चिंतन)


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©rishika khushi
  प्रकृति का रहस्य अत्यंत गूढ़ है।जिसे समझ पाना बहुत मुश्किल है।जीवन और मृत्यु उनमें से एक है।जिसे आज तक कोई समझ नहीं पाया है। मृत्यु ही जीवन का उद्धम है। जैसे रात्रि के गर्भ  से दिन का उद्धम होता है।उसी तरह हमारा जीवन भी मृत्यु के कोख से पैदा होता है। जीवन और मृत्यु कटु सत्य है। जब हमें जीवन मिला है तो मृत्यु भी अवश्य आनी है।जीवन और मृत्यु तो एक दूसरे की परिपूरक है। मृत्यु नहीं होगी तो जन्म नहीं होगा। और जो जन्म लेगा उसकी मृत्यु सुनिश्चित है।घास-पात की तरह मनुष्य भी  माता के पेट से जन्म लेता है। पेड़-पौधे की तरह बढ़ता है।फिर पतझड़ में जरा-जीर्ण होकर मौत के मुँह में चला जाता है। लोक-परलोक उतना ही है जितना कि काया( आत्मा) का अस्तित्व । जो मरण के साथ सदा के लिए समाप्त हो जाता है।मृत्यु एक सामान्य घटना है।उतना ही जितना कि पुराने कपड़े बदल कर नया धारण करना।मृत्यु भी सामान्यतः अपना शिकार ख़ुद चुनती है।इसलिये मृत्यु से पलायन करके मृत्यु से बचना संभव नहीं है।
   हम हमेशा पढ़ते आते है, समाचार पत्रों में या न्यूज़ में देखते है सुनते है कि तीन दोस्त घूमने गए।अचानक से कुछ ऐसा हुआ 2 दोस्त मारे गए और एक बच गए। इसलिए हम बोलते है कि मृत्यु भी अपना शिकार ख़ुद चुनती है। 

   अभी हाल ही मैंने पढ़ा था की एक बस जो बाराती को लेकर जा रही थी वो खाई में गिर गई ।और सारे बाराती की मृत्यु हो गई मगर बस का ड्राइवर बच गया।

मृत्यु और जीवन की क्षणभंगुरता का अनुभव सकारात्मकता के साथ मनुष्य की स्मृति में अवश्य रहना चाहिए। इस कटु सत्य के सतत चिंतन से मनुष्यों में मानवीय गुण स्वाभाविक रूप से निरूपित होते हैं। जीवन और मृत्यु संबंधी चिंतन-मनन इसलिए भी होना चाहिए, क्योंकि मानवता के शिखर पर इसी एकमात्र विचारधारा की सहायता से पहुँचा जा सकता है। इसमें कमी आते ही हम निम्न स्तरीय जीवन और इसके निरर्थक विचारों से घिर जाते हैं। जीवन और मृत्यु का चिंतन हम यह सोचकर नहीं छोड़ सकते कि इससे जीवन हीनता व दीनता से भर जाएगा।  जीवन की नश्वरता और मृत्यु की शाश्वतता पर प्रत्येक मनुष्य को स्वयं केंद्रित होना चाहिए या उसे किसी धार्मिक जनजागरण के माध्यम से इस कार्य के लिए संकेंद्रित बनना चाहिए। इससे संसार में व्याप्त हिंसा की वीभत्सता सहित समस्त जैविक दुर्गणों पर नियंत्रण संभव है।
 
जीवन तभी कष्ट में होता है।जब वस्तुओं की इच्छा करते है।और मृत्यु तभी कष्टदायी होती है जब जीने की इच्छा और इससे भय होता है।मृत्यु यदि आनी है तो आएगी ही।
जीवन और मृत्यु 
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(चिंतन)


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©rishika khushi
  प्रकृति का रहस्य अत्यंत गूढ़ है।जिसे समझ पाना बहुत मुश्किल है।जीवन और मृत्यु उनमें से एक है।जिसे आज तक कोई समझ नहीं पाया है। मृत्यु ही जीवन का उद्धम है। जैसे रात्रि के गर्भ  से दिन का उद्धम होता है।उसी तरह हमारा जीवन भी मृत्यु के कोख से पैदा होता है। जीवन और मृत्यु कटु सत्य है। जब हमें जीवन मिला है तो मृत्यु भी अवश्य आनी है।जीवन और मृत्यु तो एक दूसरे की परिपूरक है। मृत्यु नहीं होगी तो जन्म नहीं होगा। और जो जन्म लेगा उसकी मृत्यु सुनिश्चित है।घास-पात की तरह मनुष्य भी  माता के पेट से जन्म लेता है। पेड़-पौधे की तरह बढ़ता है।फिर पतझड़ में जरा-जीर्ण होकर मौत के मुँह में चला जाता है। लोक-परलोक उतना ही है जितना कि काया( आत्मा) का अस्तित्व । जो मरण के साथ सदा के लिए समाप्त हो जाता है।मृत्यु एक सामान्य घटना है।उतना ही जितना कि पुराने कपड़े बदल कर नया धारण करना।मृत्यु भी सामान्यतः अपना शिकार ख़ुद चुनती है।इसलिये मृत्यु से पलायन करके मृत्यु से बचना संभव नहीं है।
   हम हमेशा पढ़ते आते है, समाचार पत्रों में या न्यूज़ में देखते है सुनते है कि तीन दोस्त घूमने गए।अचानक से कुछ ऐसा हुआ 2 दोस्त मारे गए और एक बच गए। इसलिए हम बोलते है कि मृत्यु भी अपना शिकार ख़ुद चुनती है। 

   अभी हाल ही मैंने पढ़ा था की एक बस जो बाराती को लेकर जा रही थी वो खाई में गिर गई ।और सारे बाराती की मृत्यु हो गई मगर बस का ड्राइवर बच गया।

मृत्यु और जीवन की क्षणभंगुरता का अनुभव सकारात्मकता के साथ मनुष्य की स्मृति में अवश्य रहना चाहिए। इस कटु सत्य के सतत चिंतन से मनुष्यों में मानवीय गुण स्वाभाविक रूप से निरूपित होते हैं। जीवन और मृत्यु संबंधी चिंतन-मनन इसलिए भी होना चाहिए, क्योंकि मानवता के शिखर पर इसी एकमात्र विचारधारा की सहायता से पहुँचा जा सकता है। इसमें कमी आते ही हम निम्न स्तरीय जीवन और इसके निरर्थक विचारों से घिर जाते हैं। जीवन और मृत्यु का चिंतन हम यह सोचकर नहीं छोड़ सकते कि इससे जीवन हीनता व दीनता से भर जाएगा।  जीवन की नश्वरता और मृत्यु की शाश्वतता पर प्रत्येक मनुष्य को स्वयं केंद्रित होना चाहिए या उसे किसी धार्मिक जनजागरण के माध्यम से इस कार्य के लिए संकेंद्रित बनना चाहिए। इससे संसार में व्याप्त हिंसा की वीभत्सता सहित समस्त जैविक दुर्गणों पर नियंत्रण संभव है।
 
जीवन तभी कष्ट में होता है।जब वस्तुओं की इच्छा करते है।और मृत्यु तभी कष्टदायी होती है जब जीने की इच्छा और इससे भय होता है।मृत्यु यदि आनी है तो आएगी ही।

प्रकृति का रहस्य अत्यंत गूढ़ है।जिसे समझ पाना बहुत मुश्किल है।जीवन और मृत्यु उनमें से एक है।जिसे आज तक कोई समझ नहीं पाया है। मृत्यु ही जीवन का उद्धम है। जैसे रात्रि के गर्भ से दिन का उद्धम होता है।उसी तरह हमारा जीवन भी मृत्यु के कोख से पैदा होता है। जीवन और मृत्यु कटु सत्य है। जब हमें जीवन मिला है तो मृत्यु भी अवश्य आनी है।जीवन और मृत्यु तो एक दूसरे की परिपूरक है। मृत्यु नहीं होगी तो जन्म नहीं होगा। और जो जन्म लेगा उसकी मृत्यु सुनिश्चित है।घास-पात की तरह मनुष्य भी माता के पेट से जन्म लेता है। पेड़-पौधे की तरह बढ़ता है।फिर पतझड़ में जरा-जीर्ण होकर मौत के मुँह में चला जाता है। लोक-परलोक उतना ही है जितना कि काया( आत्मा) का अस्तित्व । जो मरण के साथ सदा के लिए समाप्त हो जाता है।मृत्यु एक सामान्य घटना है।उतना ही जितना कि पुराने कपड़े बदल कर नया धारण करना।मृत्यु भी सामान्यतः अपना शिकार ख़ुद चुनती है।इसलिये मृत्यु से पलायन करके मृत्यु से बचना संभव नहीं है। हम हमेशा पढ़ते आते है, समाचार पत्रों में या न्यूज़ में देखते है सुनते है कि तीन दोस्त घूमने गए।अचानक से कुछ ऐसा हुआ 2 दोस्त मारे गए और एक बच गए। इसलिए हम बोलते है कि मृत्यु भी अपना शिकार ख़ुद चुनती है। अभी हाल ही मैंने पढ़ा था की एक बस जो बाराती को लेकर जा रही थी वो खाई में गिर गई ।और सारे बाराती की मृत्यु हो गई मगर बस का ड्राइवर बच गया। मृत्यु और जीवन की क्षणभंगुरता का अनुभव सकारात्मकता के साथ मनुष्य की स्मृति में अवश्य रहना चाहिए। इस कटु सत्य के सतत चिंतन से मनुष्यों में मानवीय गुण स्वाभाविक रूप से निरूपित होते हैं। जीवन और मृत्यु संबंधी चिंतन-मनन इसलिए भी होना चाहिए, क्योंकि मानवता के शिखर पर इसी एकमात्र विचारधारा की सहायता से पहुँचा जा सकता है। इसमें कमी आते ही हम निम्न स्तरीय जीवन और इसके निरर्थक विचारों से घिर जाते हैं। जीवन और मृत्यु का चिंतन हम यह सोचकर नहीं छोड़ सकते कि इससे जीवन हीनता व दीनता से भर जाएगा। जीवन की नश्वरता और मृत्यु की शाश्वतता पर प्रत्येक मनुष्य को स्वयं केंद्रित होना चाहिए या उसे किसी धार्मिक जनजागरण के माध्यम से इस कार्य के लिए संकेंद्रित बनना चाहिए। इससे संसार में व्याप्त हिंसा की वीभत्सता सहित समस्त जैविक दुर्गणों पर नियंत्रण संभव है। जीवन तभी कष्ट में होता है।जब वस्तुओं की इच्छा करते है।और मृत्यु तभी कष्टदायी होती है जब जीने की इच्छा और इससे भय होता है।मृत्यु यदि आनी है तो आएगी ही।