गहराई से समझने की बात यह है कि जिस मन की संवेदना के कारण हमारी योनि मानव योनि कहलाती है, नर से नारायण होने की क्षमता रखती है, उसी मन की शिक्षा के हथियार द्वारा हत्या कर दी जाती है। न पुरुष में पौरुष रहता है न स्त्री में स्त्रैण भाव। दोनों जड़वत्। #क्रमशः-03 शुभसंध्या जी ....... : सारा खेल शरीर के सुख का। शिक्षा भी यही सिखाती है। देरी, समझ, अहंकार आदि घातक तत्त्वों की जननी भी यही नकली-भ्रान्त करने-वाली शिक्षा ही है। ईश्वर मनुष्य रूप में पैदा करता है। शिक्षा मन और आत्मा को छीनकर पशु बना देती है। शरीर का भोग के अलावा उपयोग क्या हो सकता है। तलाक-हत्या आदि से समस्या का समाधान कहां। पुरुष अग्नि है, स्त्री सौया है-ऋत है। अग्नि बिना सोम के मन्द पड़ती जाती है। सोम ऋत है, निराकार है। ठहरने के लिए ठोस आधार चाहिए। दोनों एक-दूसरे के पूरक बनकर ही सुख से रह सकते हैं। इसके लिए संवेदना-विश्वास का धरातल आवश्यक है। अत: शिक्षा में बुद्धि के साथ-साथ मन का भी पोषण किया जाना चाहिए। सपन्न देशों के लडक़े विवाह के लिए तैयार ही नहीं होते। उनका मानना है कि धन कमा लो, लड़कियां तो मिल जाएंगी। बदलते रहो, बंधकर रहने की क्या जरूरत है। लड़कियां स्वयं भी तो स्वतंत्र ही रहना चाहती हैं। परिवार की जरूरत क्या है। बिना सन्तान के भी एक-दूसरे को भोगा जा सकता है। : शास्त्र कहते हैं-हम शरीर नहीं, आत्मा हैं। शिक्षा सारी शरीर के सुख को ध्यान में रखकर दी जाती है। बुद्धिजीवी कहते अवश्य हैं कि अच्छा पैकेज इसलिए चाहिए, ताकि सोलह घंटे में जीवन का निर्माण किया जा सके। परिवार का पालन हो सके। आप किसी व्यावसायिक बुद्धिजीवी की जिन्दगी को पढक़र तो देखें। मैं अच्छा सम्पादक बन गया। पैकेज ठीक मिल गया। जीवन का स्वरूप देखिए! घर पर कौन जा रहा है-सम्पादक। पत्नी से कौन मिला-सम्पादक (पति नहीं), बच्चों से कौन मिला-सम्पादक (पिता नहीं), मां-बाप से कौन मिला-सम्पादक (पुत्र नहीं)। सम्पादक रह गया, व्यक्ति (मैं) खो गया। चौबीस घंटे का जीवन मेरे आठ घंटे में लीन हो गया। शरीर रह गया, मैं खो गया।