#OpenPoetry मेरे हाथो मे सख्ती से कसी ज़ंजीर थोड़ी है। ये जो मैं देखता हूं वो मेरी तस्वीर थोड़ी है। सूकूं मिलता है ग़र उन्हें महज निशाँ मिटाने से। मिटाते है मिटाने दो मेरी तकदीर थोड़ी है। आज भी शान से जीते है हम मुर्दों की बस्ती मे। मरा तो जिस्म है मेरा, मरी ज़मीर थोड़ी है। देख रहा हूँ कबसे बस पीए जा रहे हो। जहर है कमबख्त! कोई खीर थोड़ी है। कौन कहता है हिन्दुस्तान अपने नाम कर लेगा। हिन्दुस्तान किसी के बाप की जागीर थोड़ी है। सौरभ शुक्ला #OpenPoetry a poetry which is combine with patriotism and feeling