एक ग़ज़ल - ******************************** वो ज़िद पे रहा है झुकाने पे हुस्ना हमीं तो रहे हैं निशाने पे हुस्ना निग़ाहों का तेरे क़हर ही क़हर है ज़रा तो रहम कर ज़माने पे हुस्ना जिन्हें याद कर करके सदियाँ गवाँ दी लगे हैं हमें वो भुलाने पे हुस्ना पिता चाहता है, महज़ चंद साँसें हैं बेटों की नज़रें ख़ज़ाने पे हुस्ना मुहब्बत की राहों में सब कुछ लुटा कर 'कशिश' है अड़ी सिर कटाने पे हुस्ना राजेश गर्ग ❤️ *************************************** एक ग़ज़ल