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#OpenPoetry हाँ एक अरसे बाद मुलाकात हुई है मेरी उस

#OpenPoetry हाँ एक अरसे बाद मुलाकात हुई है मेरी उससे।
कुछ बेपरवाह, कुछ बेजुबाँ तो कुछ ना उम्मीदी सी करामात हुई है मेरी उससे।।

धुंधले उजालों के सी,बिखरती हिदायतों के सी
सिकुड़ती ख्वाबों के सी,ठहरती बनावटों के सी
किसी रोज मुस्कुराई होगी,किसी शाम चहकाई होगी
मालूमात उसे भी नहीं, ये फिसलती रुबाइयाँ कहीं समाई होगी
उखड़ते जज्बातों के बीच शह-मात हुई है मेरी उससे!
हां एक अरसे के बाद मुलाकात हुई है मेरी उससे।।

उसके चेहरे की सिलवटें बयां बहुत कुछ कर गयी थी
उसके चेहरे की गुरबतें रुआं बहुत कुछ कर गयी थी
उसके चेहरे की सिलवटें फना बहुत कुछ कर गयी थी
उसके चेहरे की बदजुबें तन्हा बहुत कुछ कर गयी थी
मदमस्त सी,बेकरारी सी इल्जामात हुई है मेरी उससे।।
हां एक अरसे बाद मुलाकात हुई है मेरी उससे।।

शायद थक सी गयी है वो इन रोजमर्रा के किस्सों से
उम्मीदों तक का रुख ओझल हो चुका है इन दरख्तों के हिस्सों से
ख्वाहिशें रुक सी गयी है,बेजुबाँ थिरकती नुमाइयों से
ये हवाएं ये सदाएं सहम गई है ढलती फिरती इन इनाइयों से
इन सितमों के बीच यादों की शामें घात हुई है मेरी उससे।
हां एक अरसे के बाद मुलाकात हुई है मेरी उससे।।

इस दौर में यूं बेकदर फनाह हुई होगी सोचा तो ना था "मीत"
लिपटते,फिसलते,चीखतें अंधेरो में यूं कैद हुई होगी सोचा तो ना था "मीत"
सायें तक रूह को कुरेदेगे, नासूर बन यूँ फिजाएं मेहरबाँ हुई होगी सोचा तो ना था "मीत"
कारनामे-ए बदस्तूर सुनाके यूँ कहराई हुई होगी सोचा तो ना था "मीत"
हां यहीं है दास्तां-ए-जिंदगी बताने को मेहरात हुई है वो मुझसे
हां एक अरसे बाद मुलाकात हुई है मेरी उससे।।
कुछ बेपरवाह, कुछ बेजुबाँ तो कुछ ना उम्मीदी सी करामात हुई है मेरी उससे।। i dedicated this poem to my school friend whome i met her after a long term.
#OpenPoetry हाँ एक अरसे बाद मुलाकात हुई है मेरी उससे।
कुछ बेपरवाह, कुछ बेजुबाँ तो कुछ ना उम्मीदी सी करामात हुई है मेरी उससे।।

धुंधले उजालों के सी,बिखरती हिदायतों के सी
सिकुड़ती ख्वाबों के सी,ठहरती बनावटों के सी
किसी रोज मुस्कुराई होगी,किसी शाम चहकाई होगी
मालूमात उसे भी नहीं, ये फिसलती रुबाइयाँ कहीं समाई होगी
उखड़ते जज्बातों के बीच शह-मात हुई है मेरी उससे!
हां एक अरसे के बाद मुलाकात हुई है मेरी उससे।।

उसके चेहरे की सिलवटें बयां बहुत कुछ कर गयी थी
उसके चेहरे की गुरबतें रुआं बहुत कुछ कर गयी थी
उसके चेहरे की सिलवटें फना बहुत कुछ कर गयी थी
उसके चेहरे की बदजुबें तन्हा बहुत कुछ कर गयी थी
मदमस्त सी,बेकरारी सी इल्जामात हुई है मेरी उससे।।
हां एक अरसे बाद मुलाकात हुई है मेरी उससे।।

शायद थक सी गयी है वो इन रोजमर्रा के किस्सों से
उम्मीदों तक का रुख ओझल हो चुका है इन दरख्तों के हिस्सों से
ख्वाहिशें रुक सी गयी है,बेजुबाँ थिरकती नुमाइयों से
ये हवाएं ये सदाएं सहम गई है ढलती फिरती इन इनाइयों से
इन सितमों के बीच यादों की शामें घात हुई है मेरी उससे।
हां एक अरसे के बाद मुलाकात हुई है मेरी उससे।।

इस दौर में यूं बेकदर फनाह हुई होगी सोचा तो ना था "मीत"
लिपटते,फिसलते,चीखतें अंधेरो में यूं कैद हुई होगी सोचा तो ना था "मीत"
सायें तक रूह को कुरेदेगे, नासूर बन यूँ फिजाएं मेहरबाँ हुई होगी सोचा तो ना था "मीत"
कारनामे-ए बदस्तूर सुनाके यूँ कहराई हुई होगी सोचा तो ना था "मीत"
हां यहीं है दास्तां-ए-जिंदगी बताने को मेहरात हुई है वो मुझसे
हां एक अरसे बाद मुलाकात हुई है मेरी उससे।।
कुछ बेपरवाह, कुछ बेजुबाँ तो कुछ ना उम्मीदी सी करामात हुई है मेरी उससे।। i dedicated this poem to my school friend whome i met her after a long term.