स्त्री का मोन एक संघर्ष है उस ख्वाब का जो वो देखती है उसे जीना चाहती है पर जब वो अपना ये ख्वाब किसी अपने से सांझा करना चाहती है उसे कहने का अधिकार नहीं , कभी अपनो ने रोका तो कभी रीति रिवाजों की आड़ ले उसे कहने ना दिया, कभी ये कह दिया की तुम तो बेटी हो, तो कभी ये कह दिया की तुम किस की बहू , किसी की पत्नी हो, ये सब भी कही कम ही था उसे ये कह दिया की तुम एक मां हो अब ये सब कहा , बच्चों का तो सोचो , इस सब में एक स्त्री कही ना कही अपने ही वजूद को को देती है एक इस मोन से समझोता कर लेती है जो उसमे सोचा ना होता है अपने ही मन से संघर्ष में अपने लिए जीना भूल सी जाती है मोन एक संघर्ष