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मेरे अहम ने मुझे कब का मार दिया था, मैं फिर भी मगर

मेरे अहम ने मुझे कब का मार दिया था,
मैं फिर भी मगर गैरत की मूरत बना रहा। अहम के समन्दर में मैं अन्दर तक डूब चुका था,
मगर कहता रहा ज़माने से, मैं तो विनम्रता की मूरत हूँ।

हमे पता भी नहीं चलता और हम अहंकार की चपेट में आ जाते हैं। पर तब भी हमे यही लगता है कि हमे तो अहंकार ने छुआ तक नहीं है।

अगर अपने अहं को चोट पहुँचाने का मन करे, तो इन पंक्तियों को अपने जेहन में अन्दर तक उतार लीजियेगा।

शायद, खुद भी अहम में डूबा हुआ,
मेरे अहम ने मुझे कब का मार दिया था,
मैं फिर भी मगर गैरत की मूरत बना रहा। अहम के समन्दर में मैं अन्दर तक डूब चुका था,
मगर कहता रहा ज़माने से, मैं तो विनम्रता की मूरत हूँ।

हमे पता भी नहीं चलता और हम अहंकार की चपेट में आ जाते हैं। पर तब भी हमे यही लगता है कि हमे तो अहंकार ने छुआ तक नहीं है।

अगर अपने अहं को चोट पहुँचाने का मन करे, तो इन पंक्तियों को अपने जेहन में अन्दर तक उतार लीजियेगा।

शायद, खुद भी अहम में डूबा हुआ,