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कुछ भय क्षणिक होते हैं तो कुछ हृदय की दीवारों पर अ

कुछ भय क्षणिक होते हैं तो कुछ हृदय की दीवारों पर अभिलिखित लिपि की भांति,
सभी तराशी;सुखद स्मृति की नक्काशी सी रमणीय नहीं होती और सुरुचिपूर्ण तो तनिक भी नहीं...
Rest Of The Piece In Caption...
 कुछ भय क्षणिक होते हैं तो कुछ हृदय की दीवारों पर अभिलिखित लिपि की भांति...
सभी तराशी, सुखद स्मृति की नक्काशी सी रमणीय नहीं होती और सुरूचिपूर्ण तो तनिक भी नहीं!
अपने भय से परिचित होने को क्यों गौण समझकर दफ़ना दिया जाता है और फिर उम्र के एक पड़ाव पर,उस भय को जिसे वषों पूर्व मृत घोषित कर दिया गया था... अनायास ही स्मृतिपटल पर जीवित पाकर अथवा मस्तिष्क के किसी भाग में दीर्घ काल से चल रहे मृत विचारों वाले भाग से पुनः किसी धारावाहिक की कड़ी की तरह जुड़ते चले जातें हैं!
मैंने स्वयं प्रायः इस पर अनभिज्ञता का पर्दा डाला है, परन्तु ज्ञात्वा को अज्ञत्व करना वास्तव मे कठिन है!
'भय पर भय होना ' ही इसे आप के भीतर अधिक स्थान दिलाता है;आशय यह है कि उपहास के भय से उस भयावह गलियारे की ड्योढिं पर बढ़ते हर एक पग को रोक लिया गया!
प्रत्येक भाव किसी कारणवश प्रभावी बनता है जो कि गुजरा होता है संभवतः एक सहज़ प्रक्रिया के तहत...
ठीक उसी प्रकार...यथा किसी बीज के मुलांकर होने पर उसका वृक्ष का रूप ले लेना व उसकी जड़ों का भूतल मे विस्तृत प्रसार हो जाना...किसी भी विचार को ले लीजियें और यदि आप उसका बीज अपने मन मे डाल चुके हैं तो अब उस विचार पर किये गए अनगिनत विचारों से इसका पनपना तो तय है और इसी मस्तिष्क प्रक्रिया के चलते आप गहराई तक इसकी जड़ों के फैलाव को सुनिश्चित करते जातें हैं ! © ~priya_sharma
#भय
कुछ भय क्षणिक होते हैं तो कुछ हृदय की दीवारों पर अभिलिखित लिपि की भांति,
सभी तराशी;सुखद स्मृति की नक्काशी सी रमणीय नहीं होती और सुरुचिपूर्ण तो तनिक भी नहीं...
Rest Of The Piece In Caption...
 कुछ भय क्षणिक होते हैं तो कुछ हृदय की दीवारों पर अभिलिखित लिपि की भांति...
सभी तराशी, सुखद स्मृति की नक्काशी सी रमणीय नहीं होती और सुरूचिपूर्ण तो तनिक भी नहीं!
अपने भय से परिचित होने को क्यों गौण समझकर दफ़ना दिया जाता है और फिर उम्र के एक पड़ाव पर,उस भय को जिसे वषों पूर्व मृत घोषित कर दिया गया था... अनायास ही स्मृतिपटल पर जीवित पाकर अथवा मस्तिष्क के किसी भाग में दीर्घ काल से चल रहे मृत विचारों वाले भाग से पुनः किसी धारावाहिक की कड़ी की तरह जुड़ते चले जातें हैं!
मैंने स्वयं प्रायः इस पर अनभिज्ञता का पर्दा डाला है, परन्तु ज्ञात्वा को अज्ञत्व करना वास्तव मे कठिन है!
'भय पर भय होना ' ही इसे आप के भीतर अधिक स्थान दिलाता है;आशय यह है कि उपहास के भय से उस भयावह गलियारे की ड्योढिं पर बढ़ते हर एक पग को रोक लिया गया!
प्रत्येक भाव किसी कारणवश प्रभावी बनता है जो कि गुजरा होता है संभवतः एक सहज़ प्रक्रिया के तहत...
ठीक उसी प्रकार...यथा किसी बीज के मुलांकर होने पर उसका वृक्ष का रूप ले लेना व उसकी जड़ों का भूतल मे विस्तृत प्रसार हो जाना...किसी भी विचार को ले लीजियें और यदि आप उसका बीज अपने मन मे डाल चुके हैं तो अब उस विचार पर किये गए अनगिनत विचारों से इसका पनपना तो तय है और इसी मस्तिष्क प्रक्रिया के चलते आप गहराई तक इसकी जड़ों के फैलाव को सुनिश्चित करते जातें हैं ! © ~priya_sharma
#भय