बिठा के मुझे वो मेहमानखाने में खुद भटक रहा है वो जमाने में। मैं मौजूद हूँ भीतर वजूद में उसके बाहर ढूँढ रहा वो मुझे अनजाने में। आत्म वै परमात्म