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सफर में हार थककर जो किनारे बैठ जाते हैं, उन्हीं

सफर में हार थककर  जो  किनारे  बैठ जाते हैं,
उन्हीं की  किस्मतों के  सब सितारे बैठ जाते हैं।

मुझे ज्यादा तजुर्बा तो नहीं है महफ़िलों का पर,
किसी की  सर्द  यादों  के  सहारे  बैठ  जाते  हैं।

तुम्हारी  सुरमई सी  झील के जैसी  निगाहों  में,
उतर जाने  को  हम  बाहें पसारे  बैठ  जाते  हैं।

तेरी तनक़ीद की तहसीर भी बिल्कुल दवा सी है,
सजाकर हम  दिलों के  जख्म सारे  बैठ जाते हैं।

जलाएं या बुझा दें  जब तलक चाहें शिफा रक्खें,
तेरी दहलीज़ "दीपक"  खुद को हारे  बैठ जाते हैं।
           
     ✍️ कवि आलोक मिश्र "दीपक"

©कवि आलोक मिश्र "दीपक"
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